फरयाद और आवाज़

अमर प्रीत

कविताएँ

मंज़िलें उसी की जिसके ख्वाब सच

खोए खोए से ख्वाब
खोई खोई सी मंज़िलें
क्या दिन पिछला क्या दिन अगला
क्या दिन पूरा क्या दिन अधूरा


खुदा को नहीं खुद को कर बुलंद
ख्वाब उसी के सच जिसकी मंज़िल सच
कल नहीं आज नहीं तो कल
कभी तो होगा सच
मंज़िलें उसी की जिसके ख्वाब सच

सिर्फ़ मंज़िल

ख़्वाब भी है मंज़िल भी
पर उठाते उठते नही कदम
ख़्वाब भी है मंज़िल भी
पर फासला होता नही कम

किस्मत को ढुंडूं
या तक़दीर को कोसूं
आती नही नज़र कोई आशा
हर दिशा में लगती निराशा


मैं नही किस्मत तेरी बदल सकता
मैं नही तू ही खुद को बदल सकता
नई सोच से देख
हर दिशा लगेगी एक

सिर्फ़ आयेगी नज़र मंज़िल जब
उठेंगे अपनेआप कदम तब
सिर्फ़ आयेगी नज़र मंज़िल जब
ख़्वाब दूर नही तब

कोई फरिश्ता कोई हैवान नही

इन्सान ही इन्सान की टांग खींच रहा
छल से कपट से
इन्सान ही इन्सान को लपेट रहा
मोह से माया से

एक दूसरे को लूट रहा
छ्ल कपट के लिए
एक दूसरे को मार रहा
मोह माया के लिए

यहाँ सब हैवान
कहाँ हैं फरिश्ते
यहाँ सब जंगल
कहाँ हैं रास्ते


यह तेरा भ्रम है
इन्सान किसी और को नही
खुद को ही लूट रहा
खुद को ही मार रहा

यहाँ कोई और नही
यहाँ कोई गैर नही
सब इन्सान हैं
कोई फरिश्ता कोई हैवान नही

इस जंगल में अभी भी
लोग सही राह पे चलते हैं
इस चक्रव्यूह से अभी भी
लोग बचते और निकलते हैं

जो इस जंगल में गुम हो जाते हैं
जो इस चक्रव्यूह में फंस जाते हैं
वो ही लूटते और लुटाते हैं
वो ही मारते और मरते हैं

इन्सान ही इन्सान की टांग खींच रहा
कोई हैवान नही
इन्सान ही इन्सान की मदद कर रहा
कोई फरिश्ता नही

यहाँ कोई और नही
यहाँ कोई गैर नही
सब इन्सान हैं
कोई फरिश्ता कोई हैवान नही

रचेता के रंग

कलम से शुरू होती है जंग
कलम से ही खत्म होती है जंग
तलवार से सिर्फ़ लड़ी जाती है जंग
और मारे जाते हैं लोग

जो सोचते हैं तलवार है ताकत
कलम कमज़ोर नही
अमन के लिए सही तलवार नही
सही कलम की है ज़रूरत

है रचेता वो ही सही
जिसकी सियाही में अमन के रंग
जिसकी धार पर वतन के रंग
जिसकी रचना में हर रंग

रंजिश

मैं सोच रहा था
मन ही मन घुट रहा था
दूसरों ने जो मेरे साथ किया
हर दिन मैं याद कर रहा था
दूसरों की गलतियां गिन रहा था
मन में रंजिश लिए घूम रहा था

वक्त बीतता चला गया
मैं घुटता चला गया

एक दिन जब
मैने खाई ठोकर
समझ में आया तब
जितने ऐब दूसरों में उतने ऐब मुझमें अब

मन में हो या ज़ुबान पर
रंजिश तो रंजिश ही है
किसी की छुपी तो किसी की सामने
किसी की पिछली तो किसी की अगली

मैने वक्त खोया है
अपनों को किया पराया है
रंजिश में खोया है
अपना बीता कल गवाया है

डर है की देर न हो जाय
आने वाला पल भी खो न जाय
इस रंजिश में
कहीं रिश्ते बदल न जाएं

ज़ुबान पर थी ही नही
अब मन से भी मिटा दी
छोड़ कर सारे गिले शिक्वे
रंजिश मिटा दी

सर उठा कर
नजरें मिला कर
गले से लगा कर
रंजिश मिटा दी

मैंने अपना कल ही नही
आने वाला पल भी
मिटने से बचाया है
रंजिश को जड़ से मिटाया है

मुक्त हूं मैं
रंजिश के जाल से अब
ना ही ज़ुबान पर ना ही मन में
रंजिश का कोई वजूद अब

विरासत

ना पैसा ना शोहरत
ना ओहदा ना मुकाम
ना ज़मीन ना जायदाद
ना घर ना गाड़ी

पर अमीर मैं भी कम नही
थोड़ी सही पर खुशियाँ कम नही

दो हाथ दो पाँव
दो टुक तालीम
दे गया परवरदिगार सपने, साकार करने को
सही राह पे चलने को काम करने को कमाने को

दो वक्त की रोटी
दो जोड़ी कपड़े
दो गज़ ज़मीन
सर छुपाने को दफनाने को जल जाने को

दूसरों की मदद करने को
खुशियाँ बटोरने और बांटने को
सर उठा के जीने को
दे गया परवरदिगार ज़िंदगी, जीतने को

ह से हाहा

बकरा

हमने सोचा…
जो खिला रहा खाते जाओ
जो पिला रहा पीते जाओ
पता नही ये दिन फिर आयेंगे या नहीं
जो तुम पे लुटा रहा लूटते जाओ

बाद में पता चला
बकरा हम ही थे
जो बली चढ़ रहा
वो हम ही थे

मौसम बदल रहा

मौसम बदल रहा है
तुम क्या कर रहे हो
मै कर रहा हूं तुम्हारा इंतेज़ार
तुम क्या कर रहे हो

जवाब आता है…

मौसम बदल रहा है
तुम करो इंतेज़ार
मौसम बदल रहा है
मै नही

बाप का

बेटा बोला, सब कुछ मेरे बाप का
बाप बोला, मेरे बाद सब कुछ मेरे बेटे का

मेरा बाप बोला, भाग बेटी, ये तो सिर्फ इसके बाप का
मै बोली, भाग बेटा, तू तो निकला सिर्फ अपने बाप का

जवाब नही

मास्टरजी विद्यार्थी से: तुम्हारी आंसर शीट खाली क्यों है। एक भी जवाब नही लिखा।

विद्यार्थी: पर मास्टरजी, सब कुछ मेल्ट और एवापोरेट हो जाता है, तो लिखूं क्या?

मास्टरजी: यह तो लगेगा ही, तुम सारा साल कक्षा में मेल्टेड और एवापोरेटेड जो रहे।

पता नही

क्या करेंगे हमको पता नही
पर कुछ ना कुछ तो करेंगे जो तुमको पता नही

पसंद

मुझे पता है तुझे मेरा मज़ाक पसंद नही
पर मुझे यह भी पता है बिना मज़ाक मैं तुझे पसंद नही